दरिद्रता की पराकाष्ठा लेकर आता है जीवन में ये योग, जिसे "केमद्रुम योग" कहते हैं ।
केमद्रुमे भवति पुत्रकलत्रहीनो देशान्तरे दु:खसमाभितप्त
ज्ञातिप्रमोदनिरतो मुखर: कुचैलो नीच सदा भवति भीतियुतश्चिरायु:
ज्ञातिप्रमोदनिरतो मुखर: कुचैलो नीच सदा भवति भीतियुतश्चिरायु:
इस योग के चलते थोड़ी सी असफलता से भी जातक "डिप्रेशन" एवं मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है । इस योग के कारण जातक के जीवन में अधूरापन सदैव बना रहता हैं । इसलिए जब भी कोई मुसीबत या असफलता मिलती हैं तो दूसरों की अपेक्षा इस योग के पीड़ित को कई गुना महसूस होती हैं ।।
मित्रों, किसी भी लग्न की कुण्डली में चन्द्रमा जिस राशी में होता है, उसके दूसरे और बारहवें भाव में सूर्य के अलावा अन्य कोई ग्रह न हो तो कुण्डली में "केमद्रुम योग" बनता है । अभिप्राय यह है, कि चन्द्रमा के दोनों ओर मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, या शनि में से किसी न किसी ग्रह का होना आवश्यक हैं।
हमारे आचार्यों ने इस योग में राहू एवं केतु को मान्यता नहीं दी हैं, क्योंकि ये मात्र छाया ग्रह हैं । परन्तु चन्द्रमा के दोनों में से किसी ओर उपरोक्त ग्रहों में से कोई ग्रह न हो तो प्रबल दुर्भाग्य का प्रतीक "केमद्रुम योग" बनता हैं।
इस योग के विषय में जातक पारिजात में लिखा हैं कि जन्म के समय यदि किसी जातक की कुण्डली में केमद्रुम योग हो तथा इसके साथ ही उसकी कुंडली में और भी सैकड़ों अन्य राजयोग हो तो वह भी नि:ष्फल हो जातें हैं। अर्थात केमद्रुम योग अन्य सैकड़ों राजयोगों के सुन्दर प्रभावों को भी उसी प्रकार समाप्त कर देता है, जिस प्रकार जंगल का राजा शेर हाथियों का प्रभाव समाप्त कर देता हैं।
मित्रों, इस योग के विद्यमान होने पर जातक स्त्री, संतान, धन, घर, वाहन, कार्य-व्यवसाय, माता-पिता एवं अन्य रिश्तेदारों अर्थात सभी प्रकार के सुखों से हीन होकर इधर-उधर व्यर्थ भटकने के लिए मजबूर होता हैं।
इसलिए अगर आपकी कुण्डली में यह योग विद्यमान हो तो इन बातों को ध्यान से पढ़ें । क्योंकि इस भयंकर योग का भंग होना भी पाया जाता हैं। अर्थात् किसी की जन्मकुण्डली में इस प्रकार की स्थिति हो तो इस दोष का प्रभाव लगभग समाप्त हो जाता।
कुमुदगहनबन्धूर्वीक्ष्यमाण: समस्तै
र्गगनगृहनिवासैर्दीर्घजीवी मनुष्या
फलमशुभसमुत्थं नैव केमद्रुमोक्तं
स भवति नरनाथ सार्वभौमो जितारि:
र्गगनगृहनिवासैर्दीर्घजीवी मनुष्या
फलमशुभसमुत्थं नैव केमद्रुमोक्तं
स भवति नरनाथ सार्वभौमो जितारि:
१.यदि चन्द्रमा केंद्र स्थानों - प्रथम, चतुर्थ, सप्तम या दशम भाव में हो।
२.कुण्डली में चन्द्र कि उच्चराशी वृष या स्वराशी कर्क केंद्र में हो।
३.चन्द्र के साथ अन्य कोई भी ग्रह एक ही भाव में विराजित हो।
४.कई ग्रहों की दृष्टी यदि चन्द्र पर हो तो भी इस दोष का दु:ष्प्रभाव कम हो जाता है।
पूर्ण: शशी यदि भवेच्छुभस्स्थितो वा
सौम्यामरेज्यभृगुनन्दनसंयुतश्च
पुत्रार्थसौख्यजनक: कथितो मुनीन्द्रै:
केमद्रुमे भवति मंड्गलसुप्रसिद्धि
सौम्यामरेज्यभृगुनन्दनसंयुतश्च
पुत्रार्थसौख्यजनक: कथितो मुनीन्द्रै:
केमद्रुमे भवति मंड्गलसुप्रसिद्धि
उपरोक्त स्थितियों में से कोई भी एक स्थिति बने तो भी "केमद्रुम योग" भंग हो जाता हैं । परन्तु ज्योतिष के लगभग सभी महानुभाव इस बात से पूर्णतः सहमत हैं ।
परन्तु मैं अगर मेरे अनुभव की बात करूँ, तो यही समझ में आता है, कि जन्मकुण्डली में "केमद्रुम योग" तथा "केमद्रुम भंग योग" इन दोनों के होते हुए भी जातक को सम्बंधित ग्रहों कि दशा-अन्तर्दशा में मिश्रित फलों का सामना करना ही पड़ता हैं। फिर चाहे वो स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र कि कुण्डली ही क्यों न हो ।
अब आप स्वयं भगवान श्रीरामचन्द्र जी की कुण्डली पर एक नजर डालें। भगवान श्रीराम का जन्म कर्क लग्न में हुआ था । गुरु एवं चन्द्र लग्न में, तीसरे भाव में राहू, चौथे भाव में शनि, सप्तम भाव में मंगल, नवम भाव में शुक्र एवं केतु, दशम भाव में सूर्य तथा एकादश भाव में बुध विद्यमान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कर्क लग्न वाले जातक स्वतः भाग्यशाली होते हैं । साथ ही लग्नस्थ चन्द्रमा के दोनों तरफ द्वितीय और द्वादश भाव में कोई ग्रह नहीं हैं। अत: "केमद्रुम योग" निर्मित होता प्रतीत होता है तथा वहीँ इस योग के विपरीत चन्द्र की राशी कर्क स्वयं लग्न भाव में है, साथ में ही स्वग्रही चन्द्रमा भी केंद्र में शक्तिशाली होकर बैठा है। साथ में देवगुरु बृहस्पति भी हैं, अर्थात केमद्रुम योग यहाँ भंग होते हुए स्पष्ट दीखता है । किं कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे यस्य केन्द्रे बृहस्पति = अर्थात् केंद्र मैं ब्रहस्पति उच्च का हो तो बाकि ग्रह क्या बिगाड़ लेंगे।
यहाँ तो उच्च का गुरु केन्द्र में स्थित होकर पंचमहायोगों में श्रेष्ठ "हंस योग", शनि के उच्च के होने से "शश योग", मंगल उच्च का होकर केंद्र में बैठा है इससे "चक योग" का निर्माण होता है। इन सबके अलावा गुरु चन्द्र मिलकर ज्योतिष का सबसे महान योग "गज केसरी योग" का भी निर्माण करते हैं । साथ ही सूर्य भी अपनी उच्च राशी में होकर अपने कारक स्थान में उपस्थित हैं।
शुक्र भाग्य भाव में होकर अपनी उच्च राशी में बैठा हैं । अर्थात इस प्रकार के महान योग किसी अलौकिक व्यक्तित्व की जन्म कुण्डली में ही सम्भव हो सकते हैं जो भगवान श्रीराम में लक्षित होते हैं। परन्तु इन महान योगों के होने के बाद भी भगवान श्री राम के जीवन चरित्र पर इस भयानक योग का दुष्प्रभाव दिखता है । उनके जीवन में संघर्ष के यात्रा में इस योग के दुष्प्रभाव को महत्वपूर्ण कारण माना गया है।
वैसे तो राजतिलक के समय शनि की महादशा में मंगल के अंतर को भी कारण माना गया था महर्षि बशिष्ठादि मनीषियों द्वारा और इसीलिए तब राजतिलक होते-होते भगवान श्री राम को वनवासी राम बनना पड़ा था। मित्रों, अब विचार ये करना है, कि जब स्वयं भगवान पर इस दोष का दुष्प्रभाव बना रहा तो फिर हम जैसे लोगों के लिए तो इस योग का असर और भी भयानक हो सकता है। अत: कुण्डली में इस योग के होने पर इसका निराकरण करवाना अत्यावश्यक हो जाता है। जैसा की आप सभी जानते हैं, चन्द्रमा मनसो जातः = चंद्रमा चूँकि मन का कारक ग्रह हैं।
इसलिए जब भी कोई मुसीबत या असफलता मिलती हैं तो दूसरों की अपेक्षा इस योग के पीड़ित को कई गुना महसूस होती हैं। इस योग के चलते थोड़ी सी असफलता से भी जातक "डिप्रेशन" एवं मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है । इस योग के कारण जातक के जीवन में अधूरापन सदैव बना रहता हैं।
दरिद्रता की पराकाष्ठा लेकर आता है जीवन में ये योग जिसे कहते हैं केमद्रुम योग
Reviewed by Upendra Agarwal
on
सितंबर 06, 2018
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