नर्क चतुर्दशी l NARAK CHATURDASHI

रूप / नर्क  चतुर्दशी: दीपावली का सिंजारा
 
 
उत्तर भारत में वर्ष भर के प्रमुख उत्सव दीपावली का आजकल तो इतना विस्तार हो गया है कि हफ्तों पहले से सजावट, खरीदारी और तैयारी होने लगती है, पर पहले भी यह पंचदिवसीय उत्सव था। आज तो दीपावली के शिखर महत्व के नीचे इसके आस-पास के त्योहारों की विशेषताएं दब गई हैं, पर यह सत्य स्मरणीय है कि दीपावली के पहले के दो त्योहारों ने और बाद के दो त्योहारों ने मिलकर ही इसे वर्ष का सिरमौर उत्सव बनाया था।

दीपावली का यह पंचदिवसीय उत्सव-चक्र उत्तर और पश्चिम भारत में सदियों से प्रसिद्ध है। दीपावली से पूर्व धनतेरस या यमत्रयोदशी कुबेर पूजा का तथा यमराज को दीपदान के साथ ही धन्वन्तरि पूजन का उत्सव होने के कारण यक्ष संस्कृति का प्रतीक है तथा नरक चतुर्दशी या रू पचौदस पर्यावरण के साथ गृहस्थ जीवन के सन्तुलन और घर तथा शरीर की स्वच्छता का त्योहार होने के कारण पर्यावरणीय ऋतुपर्व है। धर्मशास्त्रों में दीपावली के पूर्व दिन तथा अगले दिन भी घरों व चौराहों पर दीपक रखने का विधान किया गया है और इस प्रकार सभी शास्त्रों में दीपोत्सव को तीन दिन का उत्सव बताया गया है। राजस्थान में तो रू पचौदस को छोटी दीपावली ही कहा जाता है। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहकर अकाल मृत्यु के निवारण और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए यमराज की प्रार्थना का दिन माना गया है।

यह दिलचस्प बात है कि इस दिन के लिए शास्त्र विहित कार्यो में तेल का अभ्यंग, उबटन और शरीर का श्ृंगार जिस प्रकार विहित मिलता है उसी प्रकार जड़ के साथ लगी हुई मिट्टी को पूरी तरह उठा कर दूसरी जगह पौधों को रोपना और शीतकालीन "क्षुपों" को प्रतिरोपित (ट्रांसप्लांट) करने का भी यह अवसर बताया गया है। यह हुआ वर्षा के बाद का शरत्कालीन वन महोत्सव। ऎसे पौधों में "अपामार्ग" आदि के नाम भी शास्त्रों में गिनाए गए हैं। हमारे उत्सव किस प्रकार प्रकृति और पर्यावरण से अविभाज्य रू प से जुड़े हुए हैं इसका ही एक निदर्शन है यह रू प चौदस। चौमासे की बीमारियों से बचकर शरीर और त्वचा के स्वास्थ्य के लिए "स्नेहक" यानी चिकने पदार्थो का प्रयोग शुरू करते समय आप मृत्यु के देवता यमराज से प्रार्थना करें कि हम रोग और अकाल मृत्यु के ग्रास न हों यह स्वाभाविक ही है।

इस चौदस के दिन यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैनस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दग्ध, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चौदह नामों से प्रत्येक बार एक अंजलि जल छोड़ते हुए जो यमराज का तर्पण करते हैं, उन्हें कभी अकाल मृत्यु प्राप्त नहीं होती, ऎसा मंत्रशास्त्रीय प्रयोग भी मिलता है। इससे पूर्व की रात्रि (यमत्रयोदशी) को यमराज के नाम से चौराहे पर दीपक रखते समय तथा चतुर्दशी को (जिसे यमचतुर्दशी भी कहा गया है) यमतर्पण करते समय समस्त मानवों की एक ही प्रार्थना रहती है, "हे यम धर्मराज, आप हमें देखते रहें पर हम आपको कभी न देखें, ऎसा वरदान हमें दीजिए।" कितनी अद्भुत कामना है! यमराज अपने मुनीम चित्रगुप्त के माध्यम से प्रत्येक प्राणी के अच्छे-बुरे कर्मो का लेखा-जोखा लेते रहते हैं। अत: वे तो प्रत्येक संसारी पर नजर रखेंगे ही, पर हमें मृत्यु कभी न आए, हम यमराज का मुंह कभी न देखें, यह प्रत्येक प्राणी चाहता है। इसी कामना का अवसर है यह दिन।

महामारियों की यातना और नरक यातना को हमारे यहां सदा से पर्यायवाची सा माना गया है। वर्षा ऋतु के अवसर पर होने वाली रोगाणु जन्य महामारियों से बचने के जो अनेक विधान धार्मिक कृत्यों के रू प में भाद्रपद और आश्विन मास में बताए गए हैं उनकी पूर्णाहुति का पर्व ही तो है यह नरक चतुर्दशी जिस दिन आप नरक यातना से त्राण पाने का हर्ष मनाते हैं। आयुर्वैज्ञानिक भी वर्षाकाल को रोगाणु संक्रमण का सम्भावित काल मानते हैं। ऋतु परिवर्तन के कारण शरत् काल में भी अनेक रोग पैदा हो सकते हैं। संस्कृत में इसीलिए एक विनोदपूर्ण अभियुक्ति प्रसिद्ध हो गई है- "वैद्यानां शारदी माता वसन्तस्तु पिता स्मृत:।" अर्थात् वैद्यों और डाक्टरों के लिए वसन्त ऋतु पिता की तरह और शरद् ऋतु माता की तरह हितैषी होते हैं, उन्हें इन दिनों अच्छी आमदनी होती है।

इसीलिए इन दोनों ऋतुओं में स्वास्थ्य चर्या के विधान धार्मिक कृत्यों में गूंथ कर विहित कर दिए गए हैं। जिस प्रकार गणगौर और तीज जैसे त्योहारों की पूर्व संध्या पर उत्सव निमित्त श्ृंगार करने के लिए महिलाएं सिंजारा मनाती हैं उसी प्रकार दीपावली की पूर्व संध्या का सिंजारा है रू पचौदस। इस चतुर्दशी को जिस प्रकार तिल का भोजन और तैलाभ्यंग (तेल मालिश) विहित है उसी प्रकार दन्तधावन, उबटन, गर्म जल से स्नान और श्ृंगार भी। यह सब किसी बड़े उत्सव की तैयारी के लिए किए जाने वाले प्रसाधन का स्वरू प स्पष्ट कर देता है। इस उत्सव के साथ जो पौराणिक मान्यताएं जुड़ गई हैं वे भी इसकी सांस्कृतिक महत्व को उजागर करती हैं।

कहा जाता है कि इसी दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध कर उसके अत्याचार से पीडित पृथ्वी को अभयदान दिया था। प्राग्ज्योतिष (असम) का अधिपति भौमासुर (जिसे नरकासुर भी कहा जाता है) अत्याचारी और क्रूर हो गया था। उसने सोलह हजार एक सौ मासूम राजकन्याओं को अपने अन्त:पुर में कैद कर रखा था। देवता तक उससे डरने लगे थे। भगवान कृष्ण ने उससे युद्ध कर उसे पराजित किया तथा उन कन्याओं को कैद से छुड़ाया।

एक युगपुरूष के नाते उन कन्याओं के कलंक को धोकर उन्हें सामाजिक मान्यता के साथ पुन: प्रतिष्ठापित करने के उद्देश्य से ही उन्होंने उन सबसे विवाह कर उन्हें अपना नाम दिया। तभी तो श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियां प्रसिद्ध हैं (आठ पटरानियां और सोलह हजार एक सौ ये राजकन्याएं)। नरकासुर के वध (उद्धार) की यह कथा तो आज भी रू पचतुर्दशी को सुनी-सुनाई जाती है। छोटी दीपावली कहलाने वाली रू पचौदस का यह त्योहार इस प्रकार अनेक सांस्कृतिक पर्यावरणीय, सामाजिक और आयुर्वैज्ञानिक आयामों को संजोये हुए है तथा सच्चे अर्थो में "दीपावली का सिंजारा" कहलाने योग्य है।

नर्क चतुर्दशी

यह त्यौहार नरक चौदस या नर्क चतुर्दशी या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है। मान्यता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल तेल लगाकर अपामार्ग (चिचड़ी) की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नरक से मुक्ति मिलती है। विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं।
शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। दीपावली को एक दिन का पर्व कहना न्योचित नहीं होगा। इस पर्व का जो महत्व और महात्मय है उस दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण पर्व व हिन्दुओं का त्यौहार है। यह पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है जैसे मंत्री समुदाय के बीच राजा। दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली फिर दीपावली और गोधन पूजा , भाईदूज ।

संदर्भ

नरक चतुर्दशी की जिसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इसे छोटी दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि दीपावली से एक दिन पहले रात के वक्त उसी प्रकार दीए की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है जैसे दीपावली की रात। इस रात दीए जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं हैं। एक कथा के अनुसार आज के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारत सजायी जाती है।
इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य कथा यह है कि रन्ति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समझ यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो क्योंकि आपके यहां आने का मतलब है कि मुझे नर्क जाना होगा। आप मुझ पर कृपा करें और बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है। पुण्यात्मा राज की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक ब्राह्मण भूखा लौट गया यह उसी पापकर्म का फल है।
दूतों की इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूं कि मुझे वर्ष का और समय दे दे। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुंचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे पूछा कि कृपया इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय है। ऋषि बोले हे राजन् आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्रह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें।
राजा ने वैसा ही किया जैसा ऋषियों ने उन्हें बताया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल लगाकर और पानी में चिरचिरी के पत्ते डालकर उससे स्नान करने का बड़ा महात्मय है। स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपरोक्त कारणों से नरक चतुर्दशी, रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से जाना जाता है।
नर्क चतुर्दशी l NARAK CHATURDASHI नर्क चतुर्दशी l NARAK CHATURDASHI Reviewed by Upendra Agarwal on नवंबर 03, 2010 Rating: 5

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